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मौलवी अहमदुल्लाह- 1857 के ग़दर का एक ऐसा नायक जिसे देश ने भुला दिया, कांपते थे अंग्रेज, गद्दारी ने ले ली जान

मौलवी अहमदुल्लाह शाह ‘फैजाबादी’ का जन्म 1787 को जबकि मृत्यु 5 जून 1858 को हुई. अहमदुल्लाह ( مولوئ احمداللہ شاھ) फैज़ाबाद के मौलवी के रूप में प्रसिद्ध, 1857 के भारतीय विद्रोह के प्रमुख व्यक्ति थे. मौलवी अहमदुल्लाह शाह को 1857 के विद्रोह के लाइट हाउस के रूप में जाना जाता था.

जॉर्ज ब्रूस मॉलसन और थॉमस सीटन जैसे ब्रिटिश अधिकारियों ने अहमदुल्ला की बुद्धिमत्ता, साहस, दृढ़ता, बहादुरी, व्यक्तिगत और संगठनात्मक क्षमताओं के बारे में उल्लेख किया है वहींजी. बी. मॉलसन ने भारतीय विद्रोह के इतिहास में अहमदुल्लाह शाह का बार-बार उल्लेख किया है. आपकी यह पुस्तक 1857 के भारतीय विद्रोह को कवर करते हुए 6 खंडों में लिखी गई पुस्तक है.

डंका शाह, नक्कार शाह, मौलवी अहमदउल्ला, न जाने कितने तो नाम थे, जिसे जैसे दिखे उसने उन्हें वैसे पुकारा. एक सूफी और एक क्रांतिकारी,1857 के महानायक, अवध के हीरो, बेगम हज़रत महल को विजय का झंडा थमाने वाले, क्या कहें इन्हें. हालांकि दुर्भाग्य की बात है कि आज देश आपको (अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ) भी भूल गया है।

(अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ) एक ऐसे रहस्यमयी लीडर थे जिसे अंग्रेज पकड़ते मगर हर बार वह रेत की तरह उनकी मुट्ठी से बाहर निकल जाते. अंग्रेज अधिकारी जब तक एक हुलिया दिमाग मे बैठाते, (अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ) का हुलिया बदल जाता. फैज़ाबाद में जब उन्हें आजीवन कारावास देकर कैद किया तो वह कैद हो गए. हालांकि जब 1857 का बिगुल बजा तो सलाखें टूट गईं और निकल आया आवाम का बादशाह. वह तो मौलवी अहमदुल्लाह हैं, जिनकी ख़ुद की मर्ज़ी से ही क़ैद और रिहाई चलती है.

अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ चल दिये लखनऊ की तरफ, रुदौली, दरियाबाद, बाराबंकी समेत आसपास के हर कस्बे को जीता और सब पर क्रांतिकारियों का कब्ज़ा करते हुए चिनहट में डेरा डाला. इस तरह से अवध आज़ाद होता चला गया. असाधारण सैन्य छमता, संगठन बनाने और लोगों को संगठित करने की शानदार तकनीक डंका शाह में थी. जब वह लखनऊ पहुँचे तो उनसे पहले पहुँचा उनका डर. हडसन को आभास हो गया कि अब अवध अब हाथ मे नही आएगा. बेगम हजरत महल और मौलवी अब्दुल्लाह मिल गए हैं, अब इन्हें हराना नामुमकिन है.

हडसन जिसने दिल्ली में मौत का मेला लगा रखा था, घर घर से खींचकर बहादुर शाह के सहयोगियों को फाँसी दिलवाई थी. ये वहीं हडसन था जिसने उनके (बहादुर शाह जफर) बेटों के सर थाल में भेजा था. उसी हडसन को लखनऊ की सरज़मीन पर मौलवी अहमदुल्ला ने ज़मींदोज़ कर दिया. बाटों और राज करो में यकीन रखने वाले गोरे दरारों को हवा देना जानते थे, अंग्रेजों ने चल दी अपनी चाल और उड़ा दी खबर की अहमदुल्लाह शाह खुद अवध की बागडोर लेना चाहते हैं. बस इतना काफी था और बांट दिया उन क्रांतिकारियों को जो मुट्ठी बनकर अंग्रेजों से लड़ रहे थे और उनका सरदर्द बने हुए थे. अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ को यह बात नगवार गुजरी, मायूसी के साथ यह योद्धा फिर भी आजादी के लिए लड़ता रहा.

लखनऊ को चिनहट से दरगाह हैदर अब्बास तक उन्होंने मुट्ठी में ले लिया,लखनऊ का यह आखरी मोर्चा था. वह आगे बढ़ना चाहते थे, लड़ते लड़ते जब दूसरे अंग्रेजों का पीछा किया, उनके पीछे बरेली शहजहांपुर तक दौड़ के गए मगर अंग्रेज उनसे भागते रहे. नाना साहब पेशवा और मौलवी की योजना थी कि साथ मे ही बरेली को जीत लिया जाए. बरेली को जीतने के लिए शाहजहांपुर में डेरा डाला जाए. क्रांतिकारी नाना साहब पेशवा ने गद्दारों और मुखबिरों के घर मे आग लगवा दी. वहीं दूसरी तरफ अग्रेजों की नीव हिलाने के लिए मौलवी अपने एक दोस्त राजा पुवायां जगन्नाथ सिंह के यहाँ योजना को अमली जामा पहनाने गए.

अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ पर अंग्रेजों ने पचास हज़ार चांदी के सिक्कों का ईनाम रखा. कहा जो डंका शाह का सर लाएगा वह यह ईनाम तो पाएगा ही साथ ही अंग्रेज़ो का सम्मान भी हासिल करेगा. दोस्त जगन्नाथ सिंह ने ईनाम की लालच में आकर दोस्ती और ईमान को बेच दिया.

आज ही के दिन 5 जून 1858 को मौलवी अपने युद्ध के हाथी पर अपने महल के द्वार पर पहुंचे तो राजा ने एक तोप शॉट को गोली मारकर हमला किया और मौलवी गिर गए. जिसका अंग्रेज कुछ कर न सके, उसे जगन्नाथ ने ढेर कर गर्दन उतार ली. रुमाल में रखकर अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ का सर अंग्रेज़ो को उपहार दिया गया और यह सर अंग्रेज़ो ने अपने मुख्यालय पर लटका दिया. ज़िन्दा जिस्म से डरने वाले अंग्रेज, अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ का सर अपनी इमारत पर टांग इठलाए और कहा हमारी हुक़ूमत की नींव मज़बूती से रख गई.

हम भला उन्हें आज क्यों याद कर रहे हैं ज्यूंकि गद्दारों ने आज ही के रोज़ उन्हें शहीद किया था. अहमदुल्लाह शाह, مولوئ احمداللہ شاھ हमेशा अंग्रेजों के लिए तिलिस्म की तरह रहे पर हारे तो अपने दोस्त से जिसपर बेपनाह भरोसा था. आज देश उन्हें खिराजे अक़ीदत पेश करते हैं.

सोर्स-wikipedia.org

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